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वास्तु ,वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं



वास्तु - वास्तु संस्कृत भाषा का शब्द है । महान् विद्वान् वामन शिवराम आप्टे द्वारा रचित संस्कृत-हिन्दी शब्दकोष में वास्तु शब्द का विश्लेषण इस प्रकार बताया गया है । पुल्लिंग, नपुंसकलिंग तथा वस् धातु में तुण प्रत्यय लगकर वास्तु शब्द का निर्माण हुआ है । इसका अर्थ है - घर बनाने की जगह, भवन, भूखण्ड, स्थान, घर, आवास, निवास, भूमि । वस् धातु, तुण प्रत्यय से, नपुंसक लिंग में वास्तु शब्द की निष्पत्ति होती है।

चीन, हांगकांग, सिंगापुर, थाईलैण्ड, मलेशिया आदि देशों में वास्तुशास्त्र को फेंगशुई के नाम से जाना जाता है। लेटिन भाषा में वास्तुशास्त्र को ‘जियो मेशि’ कहा जाता है । तिब्बत में वास्तुशास्त्र को बगुवातंत्र कहते हैं। अरब में इसे रेत का शास्त्र कहते हैं।

वृहत्-संहिता और मत्स्यपुराण में वर्णित वास्तु के आचार्यों के नाम :

प्राचीनकाल के प्रसिद्ध आचार्यों के नाम  - विश्वकर्मा, भृगु, अत्रि, वशिष्ट, अग्निरुद्ध, मय, नारद, विपालाक्ष, पुरंदरें, ब्रह्मा, कुमार, शौनक, गर्ग, वासुदेव, वृश्पिति, मनु, पराशर, नंदीश्वर, भरद्वाज, प्रहलाद, नग्नजित, अगस्त और मार्कण्डेय हैं। वर्तमान समय में विश्वकर्मा और मय सर्वाधिक चर्चित आचार्य हैं।

हलायुद्ध कोष के अनुसार:

वास्तु संक्षेपतो वक्ष्ये गृहदो विघ्नाशनम्।
इसानकोणादारम्भ्य हयोकार्शीतपदे प्यज्येत्।।
अर्थात्, वास्तु संक्षेप में इशान्यादि कोण से प्रारम्भ होकर ग्रह निर्माण की वह कला है, जो घर को विघ्न, प्राकृतिक उत्पातों और उपद्रवों से बचाती है।

अमरकोष के अनुसार
गृहरचना वच्छिन्न भूमे।
गृहरचना के योग्य अविछिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रकार के भवन निर्माण के लिए उपयुक्त जगह को वास्तु कहते हैं। वास्तु वह विज्ञान है जो भूखण्ड पर भवन निर्माण से लेकर उस निर्माण में उपयोग होने वाली वस्तुओं के बारे में उचित जानकारी देता है।

समरांगणसूत्र अनुसार
समरांगणसूत्र धनानि बुद्धिश्च सन्तति सर्वदानृणाम्।
प्रियान्येषां च सांसिद्धि सर्वस्यात् शुभ लक्षणम्।।
यात्रा निन्दित लक्ष्मत्र तहिते वां विधात कृत्।
अथ सर्व मुपादेयं यभ्दवेत् शुभ लक्षणम्।।
देश पुर निवाश्रच सभा विस्म सनाचि।
यद्य दीदृसमन्याश्रम तथ भेयस्करं मतम्।।
वास्तु शास्त्रादृतेतस्य न स्यल्लक्षणनिर्णयः।
तस्मात् लोकस्य कृपया सभामेतत्रदुरीयते।।

अर्थात्, वास्तुशास्त्र के अनुसार भली-भाँति योजनानुसार बनाया गया घर सब प्रकार के सुख, धन-सम्पदा, बुद्धि, सुख-शांति और प्रसन्नता प्रदान करने वाला होता है और ऋणों से मुक्ति दिलाता है। वास्तु की अवहेलना के परिणामस्वरूप अवांछित यात्राएँ करनी पड़ती है, अपयश दुख निराशा प्राप्त होती है। सभी घर, ग्राम, बस्तियाँ और नगर वास्तुशास्त्र के अनुसार ही बनाए जाने चाहिए। इसलिए इस संसार के लोगों के कल्याण और उन्नति के लिए वास्तुशास्त्र प्रस्तुत किया गया है।

वास्तु के प्राचीन ग्रन्थ :

मनसार में 32 वास्तु ग्रन्थों का उल्लेख है उनमें से कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है - समरांगणसूत्रधार, मनुष्यालय-चन्द्रिका, राजवल्लाभम् रूपमण्डम् वास्तु विद्या, शिल्परन्तम, शिल्परत्राकर मयवास्तु, सर्वार्थ शिल्पचिन्तामणि। मयभत, विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र, मानसार, वृहसंहिता, विष्णु धर्मोत्तर, अपराजित पृच्छ, जय पुच्छ, प्रसाद मण्डन, प्रमाण पंजरी, वास्तुशास्त्र, वास्तु मण्डन, कोदण्ड मण्डन, शिल्परत्न, प्रमाण मंजरी आदि। अर्थवेद का उपवेद स्थापात्य वेद को प्राचीनतम वास्तु-शास्त्र में गणना की जाती है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर वास्तुपति नामक देवता का उल्लेख किया गया है।

वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं


उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।

1. वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा

वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण  है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।

2.  उत्तर दिशा - 

इस दिशा के प्रतिनिधि देव धन के स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा ध्रूव तारे की भी है। आकाश में उत्तर दिशा में स्थित धू्रव तारा स्थायित्व व सुरक्षा का प्रतीक है। यही वजह है कि इस दिशा को समस्त आर्थिक कार्यों के निमित्त उत्तम माना जाता है। भवन का प्रवेश द्वार या लिविंग रूम/ बैठक इसी भाग में बनाने का सुझाव दिया जाता है। भवन के उत्तरी भाग को खुला भी रखा जाता है। चूंकि भारत उत्तरी अक्षांश पर स्थित है, इसीलिए उत्तरी भाग अधिक प्रकाशमान रहता है। यही वजह है कि उत्तरी भाग को खुला रखने का सुझाव दिया जाता है, जिससे इस स्थान से घर में प्रवेश करने वाला प्रकाश बाधित न हो।

3. उत्तर-पूर्व (ईशान दिशा) 

यह सभी दिशाओं में सर्वोत्तम दिशा मानी जाती है। इशान दिशा के स्वमी शिव होते है, उत्तर व पूर्व दिशाओं के संगम स्थल पर बनने वाला कोण ईशान कोण है। इस दिशा में कूड़ा-कचरा या शौचालय इत्यादि नहीं होना चाहिए। ईशान कोण को खुला रखना चाहिए या इस भाग पर जल स्रोत बनाया जा सकता है। उत्तर-पूर्व दोनों दिशाओं का समग्र प्रभाव ईशान कोण पर पडता है। पूर्व दिशा के प्रभाव से ईद्गाान कोण सुबह के सूरज की रोद्गानी से प्रकाशमान होता है, तो उत्तर दिशा के कारण इस स्थान पर लंबी अवधि तक प्रकाश की किरणें पडती हैं। ईशान कोण में जल स्रोत बनाया जाए तो सुबह के सूर्य कि पैरा-बैंगनी किरणें उसे स्वच्छ कर देती हैं। इस दिशा में कभी भी शोचालय कभी नहीं बनना चाहिये!नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होत है

4. वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा

इस दिशा के स्वामी मृत्यु के देवता यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है।  यह भाग शयन कक्ष के लिए उत्तम होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है। इस दिशा में अतिथि कक्ष या बच्चों के लिए शयन कक्ष बनाया जा सकता है। दक्षिण दिशा में बॉलकनी या बगीचे जैसे खुले स्थान नहीं होने चाहिएं।

5. वास्तुशास्त्र में  पूर्व - दक्षिण (आग्नेय दिशा )

पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।


6.  वास्तुशास्त्र में दक्षिण- पश्चिम  (नैऋत्य दिशा)

दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। यह दिशा नैऋुती अर्थात स्थिर लक्ष्मी (धन की देवी) की है। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।इस दिशा में आलमारी, तिजोरी या गृहस्वामी का शयन कक्ष बनाना चाहिए। चूंकि इस दिशा में दक्षिण व पश्चिम दिशाओं का मिलन होता है, इसलिए यह दिशा वेंटिलेशन के लिए बेहतर होती है। यही कारण है कि इस दिशा में गृह स्वामी का द्गायन कक्ष बनाने का सुझाव दिया जाता है। तिजोरी या आलमारी को इस हिस्से की पश्चिमी दीवार में स्थापित करें।


7.  वास्तुशास्त्र में पश्चिम दिशा

यह दिशा जल के देवता वरुण की है। सूर्य जब अस्त होता है, तो अंधेरा हमें जीवन और मृत्यु के चक्कर का एहसास कराता है। यह बताता है कि जहां आरंभ है, वहां अंत भी है। शाम के तपते सूरज और इसकी इंफ्रा रेड किरणों का सीधा प्रभाव पश्चिमी भाग पर पड ता है, जिससे यह अधिक गरम हो जाता है। इस दिशा में शौचालय, बाथरूम, सीढियों अथवा स्टोर रूम का निर्माण किया जा सकता है। इस भाग में पेड -पौधे भी लगाए जा सकते हैं।
8. उत्तर- पश्चिम (वायव्य कोण)

यह दिशा वायु देवता की है। उत्तर- पश्चिम भाग भी संध्या के सूर्य की तपती रोशनी से प्रभावित रहता है। इसलिए इस स्थान को भी शौचालय, स्टोर रूम, स्नान घर आदी के लिए उपयुक्त बताया गया है। उत्तर-पश्चिम में शौचालय, स्नानघर का निर्माण करने से भवन के अन्य हिस्से संध्या के सूर्य की उष्मा से बचे रहते हैं, जबकि यह उष्मा शौचालय एवं स्नानघर को स्वच्छ एवं सूखा रखने में सहायक होती है।



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