दोस्तो धन और अन्य वस्तुओं का दान करने की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। आज भी बहुत से लोग दान करते हैं। दान करने से अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है और दुखों से मुक्ति मिलती है। इसके साथ ही, जरूरतमंद लोगों को भोजन और अन्य आवश्यक चीजें भी मिल जाती हैं। दान किसे देना चाहिए, इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। जिनके पास पर्याप्त धन और सुख-सुविधाएं हैं, उन्हें छोड़कर उन लोगों की मदद करना चाहिये जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है। आइये आपको एक सच्चे संत की कहानी से बताते कि दान किसे देना अधिक उचित होता है।
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जानिए मां बगलामुखी की कथा
देवी बगलामुखी जी के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार मच जाता है और अनेकों लोक संकट में पड़ गए और संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी चिंतित हो गए.
इस समस्या का कोई हल न पा कर वह भगवान शिव को स्मरण करने लगे तब भगवान शिव उनसे कहते हैं कि शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी शरण में जाएँ, तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर के निकट पहुँच कर कठोर तप करते हैं. भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीडा करती महापीत देवी के हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न हुआ।
उस समय चतुर्दशी की रात्रि को देवी बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया और तब सृष्टि का विनाश रूक सका. देवी बगलामुखी को बीर रति भी कहा जाता है क्योंकि देवी स्वम ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी लिए देवी सिद्ध विद्या हैं. तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं, गृहस्थों के लिए देवी समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं.
इन बातों का रखें विशेष ध्यान
पंडित "विशाल' दयानंद शास्त्री के अनुसार बगलामुखी आराधना में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना जरूरी होता है। साधना में पीत वस्त्र धारण करना चाहिए एवं पीत वस्त्र का ही आसन लेना चाहिए। आराधना में पूजा की सभी वस्तुएं पीले रंग की होनी चाहिए। आराधना खुले आकश के नीचे नहीं करनी चाहिए।
आराधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । साधना डरपोक किस्म के लोगों को नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक की परीक्षा भी लेती हैं। साधना काल में भयानक अवाजें या आभास हो सकते हैं, इससे घबराना नहीं चाहिए और अपनी साधना जारी रखनी चाहिए।
साधना गुरु की आज्ञा लेकर ही करनी चाहिए और शुरू करने से पहले गुरु का ध्यान और पूजन अवश्य करना चाहिए। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं, इसलिए साधना के पूर्व महामृत्युंजय मंत्र का एक माला जप अवश्य करना चाहिए। साधना उत्तर की ओर मुंह करके करनी चाहिए। मंत्र का जप हल्दी की माला से करना चाहिए। जप के पश्चात् माला अपने गले में धारण करें।
साधना रात्रि में 9 बजे से 12 बजे के बीच प्रारंभ करनी चाहिए। मंत्र के जप की संखया निर्धारित होनी चाहिए और रोज उसी संखया से जप करना चाहिए। यह संखया साधक को स्वयं तय करना चाहिए।
साधना गुप्त रूप से होनी चाहिए। साधना काल में दीप अवश्य जलाया जाना चाहिए। जो जातक इस बगलामुखी साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अजेय हो जाता है, उसके शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते।
SOURCE - naidunia.jagran
कोई भी काम करें उसे अपना कर्तव्य समझकर ही करें
बहुत समय पहले की बात है एक राजा था। उसे राजा बने लगभग दस साल हो चुके थे। पहले कुछ साल तो उसे राज्य संभालने में कोई परेशानी नहीं आई। फिर एक बार अकाल पड़ा। उस साल लगान न के बराबर आया। राजा को यही चिंता लगी रहती कि खर्चा कैसे घटाया जाए ताकि काम चल सके। उसके बाद यही आशंका रहने लगी कि कहीं इस बार भी अकाल न पड़ जाए। उसे पड़ोसी राजाओं का भी डर रहने लगा कि कहीं हमला न कर दें।
एक बार उसने कुछ मंत्रियों को उसके खिलाफ षडयंत्र रचते भी पकड़ा था। राजा को चिंता के कारण नींद नहीं आती। भूख भी कम लगती। शाही मेज पर सैकड़ों पकवान परोसे जाते, पर वह दो-तीन कौर से अधिक न खा पाता। राजा अपने शाही बाग के माली को देखता था। जो बड़े स्वाद से प्याज व चटनी के साथ सात-आठ मोटी-मोटी रोटियां खा जाता था।
रात को लेटते ही गहरी नींद सो जाता था। सुबह कई बार जगाने पर ही उठता। राजा को उससे जलन होती। एक दिन दरबार में राजा के गुरु आए। राजा ने अपनी सारी समस्या अपने गुरु के सामने रख दी। गुरु बोले वत्स यह सब राज-पाट की चिंता के कारण है इसे छोड़ दो या अपने बेटे को सौंप दो तुम्हारी नींद और भूख दोनों वापस आ जाएंगी।
राजा ने कहा नहीं गुरुदेव वह तो पांच साल का अबोध बालक है। इस पर गुरु ने कहा ठीक है फिर इस चिंता को मुझे सौंप दो। राजा को गुरु का सुझाव ठीक लगा। उसने उसी समय अपना राज्य गुरु को सौंप दिया। गुरु ने पूछा अब तुम क्या करोगे। राजा ने कहा कि मैं व्यापार करूंगा। गुरु ने कहा राजा अब यह राजकोष तो मेरा है। तुम व्यापार के लिए धन कहां से लाओगे। राजा ने सोचा और कहा तो मैं नौकरी कर लूंगा।
इस पर गुरु ने कहा यदि तुमको नौकरी ही करनी है तो मेरे यहां नौकरी कर लो। मैं तो ठहरा साधूु मैंं आश्रम में ही रहूंगा, लेकिन इस राज्य को चलाने के लिए मुझे एक नौकर चाहिए। तुम पहले की तरह ही महल में रहोगे। गद्दी पर बैठोगे और शासन चलाओगे, यही तुम्हारी नौकरी होगी। राजा ने स्वीकार कर लिया और वह अपने काम को नौकरी की तरह करने लगा। फर्क कुछ नहीं था काम वही था, लेकिन अब वह जिम्मेदारियों और चिंता से लदा नहीं था।
कुछ महीनों बाद उसके गुरु आए। उन्होंने राजा से पूछा कहो तुम्हारी भूख और नींद का क्या हाल है। राजा ने कहा- मालिक अब खूब भूख लगती है और आराम से सोता हूं। गुरु ने समझाया देखें सब पहले जैसेा ही है, लेकिन पहले तुमने जिस काम को बोझ की गठरी समझ रखा था। अब सिर्फ उसे अपना कर्तव्य समझ कर रहे हो। हमें अपना जीवन कर्तव्य करने के लिए मिला है। किसी चीज को जागीर समझकर अपने ऊपर बोझ लादने के लिए नही।
सीख: 1. काम कोई भी हो चिंता उसे और ज्यादा कठिन बना देती है।
2. जो भी काम करें उसे अपना कर्तव्य समझकर ही करें। ये नहीं भूलना चाहिए कि हम न कुछ लेकर आए थे और न कुछ लेकर जाएंगे।
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