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सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन काल के16 संस्कार

सनातन धर्म के अनुसार  मनुष्य के जीवन काल के सोलह संस्कार होते है आइये जानते हैं इन सोलह  संस्कारों का मतलब और इनका महत्व।

 


गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।

नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥

कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।

केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।

 

1. गर्भाधान संस्कार

हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। 

उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश होता है। गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की मानसिक अवस्था जैसी होती है अथवा जैसा उनका भाव होता हैवे भाव संतान में भी प्रकट होते हैं। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था। अतः शुभ मुहूर्त में पवित्र होकर शुभ मन्त्रों से प्रार्थना करके ही गर्भाधान करना चाहिए।

2. पुंसवन संस्कार


पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। पुत्र की प्राप्ति के लिये शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान है।गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है।

लोग पुत्र प्राप्ति की कामना करते हैं। मनुष्य की इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये ही शास्त्रों में पुंसवन संस्कार का विधान मिलता है। सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म के तीसरा संस्कार  है।  सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना, गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना  है। गर्भ के छठे या आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं, पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता है।


सामान्यतः गर्भ में चार मास के बाद बालक के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि प्रकट हो जाते हैं। हृदय बन जाने के कारण गर्भ में चेतना आ जाती है इसलिए उसमें इक्षाओं का उदय होने लगता है।

गर्भ में जब मन तथा बुद्धि में नूतन चेतना शक्ति का उदय होने लगता है, तब इनमें जो संस्कार डाले जाते हैं, उनका बालक पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

इस समय गर्भ शिक्षण योग्य होता है। महा भक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था। अतः माता-पिता को चाहिए कि इन दिनों विशेष सावधानी के साथ शास्त्र सम्मत व्यवहार रखें।

4. जात कर्म संस्कार


नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस संस्कार से गर्भस्राव जन्य सारा दोष नष्ट हो जाता है। बालक का जन्म होते ही यह संस्कार करने का विधान है।

जगत से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये बालक को सोने के चम्मच से असमान मात्रा में मधु तथा घी को वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। इसमें सोना त्रिदोषनाशक है। घी आयुवर्धक तथा वात-पित्तनाशक है एवं मधु कफनाशक है। इन तीनों का सम्मिश्रण आयु, लावण्य और मेधा शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनों को धोकर स्तनपान कराती है। माँ के रक्त और मांस से उत्पन्न बालक के लिये माँ का दूध ही सर्वाधिक पोषक पदार्थ है।

5. नामकरण संस्कार


नामकरण संस्कार का फल आयु तथा तेज की वृद्धि एवं लौकिक व्यवहार की सिद्धि बताया गया है। धर्माचार्यों ने जन्म के दस दिन तक सूतक माना है। जन्म से ग्यारहवें दिन या सौवें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण संस्कार करने का विधान है। अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है।
पुरुष और स्त्रियों का नाम किस प्रकार का रखा जाये, इसके बारे में पुराणों में उल्लेख है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।

6. निष्क्रमण संस्कार


इस संस्कार का फल विद्वानों ने आयु की वृद्धि बताया है। यह संस्कार बालक के चौथे या छठे मास में होता है।तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।

सूर्य तथा चन्द्रादि देवताओं का पूजन कर बालक को उनके दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही है।

बालक का पिता इस संस्कार के अन्तर्गत आकाश आदि पञ्चभूतों के अधिष्ठाता देवताओं से बालक के कल्याण की कामना करता है।

7. अन्नप्राशन संस्कार



इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण जन्य जो दोष बालक में आ जाते हैं, उनका नाश हो जाता है।

जब बालक 6-7 मास का होता है और दाँत निकलने लगते हैं, पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है। धर्माचार्यों ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है।  हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है। शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चाँदी के चम्मच से बालक को खीर आदि पुष्टि कारक अन्न चटाते हैं।

इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थों विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्तःकरण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है।

8. चूड़ाकरण संस्कार


इसे चूड़ा कर्म और मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यों ने बालक के पहले, तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार इस संस्कार को करने का विधान बताया है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराना चाहिए। इसके बाद सिर में दही-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ करनी चाहिए। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है। इसका संस्कार का उदेश्य बल, आयु, शुचिता, बौद्धिक विकास तथा तेज की वृद्धि करना है।

मस्तक के भीतर ऊपर की ओर जहाँ पर बालों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है। उस स्थान को ‘अधिपति’ नामक मर्म स्थान कहा गया है, इस मर्म स्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखने का विधान किया है।

9. कर्णवेध संस्कार


पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिये यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार संपन्न करना चाहिये।

ब्राह्मण और वैश्य का रजत सूई से, क्षत्रिय का स्वर्ण सूई से तथा शूद्र का लौह सूई द्वारा कान छेदने का विधान है पर वैभवशाली पुरुषों को स्वर्ण सूई से ही यह क्रिया सम्पन्न करानी चाहिये।

बालक के प्रथम दाहिने कान में फिर बायें कान में सूई से छेद करे। बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कान के छेदने के साथ बायीं नासिका के छेदने का भी विधान मिलता है। बालकों को कुण्डल आदि तथा बालिका को कर्णभूषण आदि पहनाने चाहिये।

कर्ण वेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।

यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है

10. उपनयन / यज्ञोपवीत संस्कार


यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। इस संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती है। शास्त्रों तथा पुराणों में तो यहाँ तक कहा गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है। विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना इस संस्कार का मुख्य अंग है। इस संस्कार के द्वारा अपने आत्यन्तिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री जप आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है।


इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।

यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

11. वेदारम्भ संस्कार


ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार से उपनयन हो जाने पर बालक का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता है। तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना ही इस संस्कार का प्रयोजन है। यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम संस्कार है। ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान है।

इस संस्कार से बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदि में विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता। गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्चात विद्यारम्भ में प्रविष्ट होने का विधान है।

वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना है। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। इस संस्कार को जन्म से  पाँचवे या सात वे वर्ष में किया जाता है। अधिक प्रामाणिक पाँचवे वाँ वर्ष माना जाता है। यह संस्कार प्रायः वसन्त पंचमी को किया जाता है।

12. केशान्त संस्कार


गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेदारम्भ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश-दाढ़ी, मुंज, मेखला आदि धारण करने का विधान है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था। यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः सोलह वर्ष में होता है।

इस संस्कार में भी आरम्भ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर यज्ञादि के सभी अङ्गभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है।

13. समावर्तन संस्कार


समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर लौटता है। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। इसलिए यह वेदस्नान संस्कार भी कहलाता है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था। इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन संस्कार का फल है।यह संस्कार बच्चे से परिपक्वता की ओर उसे युवा बनाता है। इस संस्कार के समय उसकी उम्र तेईस से चौबीस वर्ष के लगभग मानी गई है।

14. विवाह एवं विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार 


विवाह संस्कार का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।

पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहो से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है। विवाह का यही फल बताया गया है।

कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारी होकर विवाह करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं प्रदान की है। इसके लिये कुछ नियम और विधान बने हैं, जिससे उनकी स्वेच्छाचारिता पर नियन्त्रण होता है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि को साक्षी बनाकर करने का विधान है। भारतीय संस्कृति में यह दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर तक माना गया है।

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।

15. त्रेताग्नि संग्रह संस्कार 

विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ नामक अग्नि कहलाती है। इसी को विवाहाग्नि भी कहा जाता है। उस अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ इस संस्कार में सम्पन्न होती हैं।

विवाह के बाद जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार सायं-प्रातः हवन करना चाहिए। यह नित्य हवन विधि द्विजाति के लिये आवश्यक बताई गयी है। सभी वैश्वदेवादि स्मार्त कर्म तथा पाक यज्ञ इसी अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं।

विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार के परिचय में यह स्पष्ट किया गया है कि विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं।

उस स्थापित अग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियों ( दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय ) की स्थापना तथा उनकी रक्षा का विधान भी शास्त्रों में  त्रेताग्नि संग्रह संस्कार द्वारा निर्दिष्ट है।

16. अन्त्येष्टि संस्कार

अन्त्येष्टि को पितृमेधअन्त्यकर्मअंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह अथवा  अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है।  प्राण छूटने के बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है। जब तक आ‌धे से जयादा शरीर न जल जाए तब तक सभी को वही रहना चाहिए। इस संस्कार में मुख्यतः दाहक्रिया से लेकर द्वादशा तक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं।


नोट -  

1. वेदों में संस्कारों को यज्ञों के रूप में निरूपित किया गया है।

2. कुछ आचार्यों ने उपरोक्त 16 संस्कारों के अतिरिक्त विद्यारंभ भूत संस्कार को भी संस्कार माना है

विद्यारम्भ भूत संस्कार के क्रम के बारे में हमारे भूत में मतभिन्नता है।  अन्नप्राशन के बाद ही शिशु बोलना शुरू करता  है तब विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।

3. महर्षि अंगिरा का कथन है कि जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित प्रयोग करने पर चित्र में सुंदरता एवं वास्तविकता आ जाती हैठीक उसी प्रकार चरित्र निर्माण भी विविध संस्कारों के द्वारा प्राप्त होता है।


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