श्रीव्यासजी कहते हैं ;- शौनकादि ब्रम्ह्वादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मंगलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ।
सूतजी ने कहा ;- जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा! बेटा!’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके ह्रदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।
जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रम्हा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद ज्ञान का दान दिया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं । महामुनि व्यास देव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद भागवत महापुराण में मोक्ष पर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करने वाली और परम कल्याण देने वाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृति पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके ह्रदय में आकर बन्दी बन जाता है । रस के मर्मज्ञ भक्तजन! यह श्रीमद भागवत वेद रूप कल्प वृक्ष का पका हुआ फल है।
तृतीय अध्याय अध्याय में "श्रीमद्भागवत की परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवत श्रवण से श्रोताओं को भगवद्धाम की प्राप्ति" का वर्णन है"
सूत जी कहते हैं ;- उद्धव जी ने वहाँ एकत्र हुए सब लोगों को श्रीकृष्ण कीर्तन में लगा देखकर सभी का सत्कार किया और राजा परीक्षित को हृदय से लगाकर कहा।
उद्धव जी ने कहा ;- राजन्! तुम धन्य हो, एक मात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही पूर्ण हो! क्योंकि श्रीकृष्ण-संकीर्तन के महोत्सव में तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्न हो रहा है। बड़े सौभाग्य की बात है कि श्रीकृष्ण की पत्नियों के प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभ पर तुम्हारा प्रेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्ण ने ही शरीर और वैभव प्रदान किया है; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्र पर प्रेम होना स्वाभाविक ही है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारिकावासियों में ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रज में निवास कराने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आज्ञा की थी। श्रीकृष्ण का मनरूपी चन्द्रमा राधा के मुख की प्रभारूप चाँदनी से युक्त हो उनकी लीला भूमि वृन्दावन को अपनी किरणों से सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है।
द्वितीय अध्याय में "यमुना और श्रीकृष्ण पत्नियों का संवाद, कीर्तनोत्सव में उद्धव जी का प्रकट होने का वर्णन है"
ऋषियों ने पूछा ;- सूत जी! अब यह बतलाइये कि परीक्षित और वज्रनाभ को इस प्रकार आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रम को लौट गये, तब उन दोनों राजाओं ने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया?
सूत जी कहने लगे ;- तदनन्तर महाराज परीक्षित ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों बड़े-बड़े सेठों को बुलवाकर मथुरा में रहने की जगह दी। इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित ने मथुरामण्डल के ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरों को, जो भगवान के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदर के योग्य समझकर मथुरा नगरी में बसाया। इस प्रकार राजा परीक्षित की सहायता और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने क्रमशः उन सभी स्थानों की खोज की, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएँ करते थे। लीला स्थानों का ठीक-ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहाँ-वहाँ की लीला के अनुसार उस-उस स्थान का नामकरण किया, भगवान के लीलाविग्रहों की स्थापना की तथा उन-उन स्थानों पर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थान पर भगवान के नाम से कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुंज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओं की स्थापना की। गोविन्ददेव, हरिदेव आदि नामों से भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सब ओर एकमात्र श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए। उनके प्रजाजनों को भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान के मधुर नाम तथा लीलाओं के कीर्तन में संलग्न हो परमानन्द के समुद्र में डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभ के राज्य की प्रशंसा किया करते थे।
प्रथम अध्याय में "परीक्षित और वज्रनाभ का समागम, शाण्डिल्य जी के मुख से भगवान की लीला के रहस्य और व्रजभूमि के महत्त्व का वर्णन हैं"
महर्षि व्यास कहते हैं- जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सबका मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही शक्ति से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं-उन भगवान श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का अस्वादन करने के लिये नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं।
नैमिषारण्य क्षेत्र में श्रीसूत जी स्वस्थ चित्त से अपने आसन पर बैठे हुए थे। उस समय भगवान की अमृतमयी लीला कथा के रसिक, उसके रसास्वादन में अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियों ने सूत जी को प्रणाम करके उनसे यह प्रश्न किया। ऋषियों ने पूछा- 'सूत जी! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्री मथुरा मण्डल में अनिरुद्ध नन्दन वज्र का और हस्तिनापुर में अपने पौत्र परीक्षित का राज्याभिषेक करके हिमालय पर चले गये, तब राजा वज्र और परीक्षित ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया।'