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जानें सुंदर कांड में वर्णित उनचास पवन (वायु) के बारे में

 जानें  सुंदर कांड में वर्णित उनचास पवन अर्थात (वायु) के  बारे में  

सुंदर कांड के 25वें दोहे में  तुलसी दास  जी  ने इसका वर्णन किए है । सुन्दर कांड में जब हनुमान जी ने लंका में आग लगाई थी, उस प्रसंग  के बारे में  लिखा है | कि


"हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास

अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।"


अर्थात :- जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान जी अट्टहास करके गरजे और आकार बढ़ाकर आकाश मार्ग से जाने लगे।


 इन उनचास मरुत का क्या अर्थ   है यह तुलसी दास जी ने नहीं लिखा है , इसका वर्णन वेदों  में  लिखा  हैं.  तुलसी दासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य होता है, जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ है ।

        

यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है, लेकिन उसका रूप बदलता रहता है, जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और सम वायु, लेकिन ऐसा नहीं है। 


जल के भीतर जो वायु है उसका शास्त्रों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।


ये 7 प्रकार हैं- 1. प्रवह, 2. आवह, 3. उद्वह, 4. संवह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह।

 

1. प्रवह :- पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणित हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 

 

2. आवह :- आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्य मंडल घुमाया जाता है।

 

3. उद्वह :- वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्र लोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 

 

4. संवह :- वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

 

5. विवह :- पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 

 

6.परिवह :- वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षि मंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तश्रर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

 

7. परावह :- वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।

 

इन सातों वायु के सात-सात गण (संचालित करने वाले) हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं-


 ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक कि दक्षिण दिशा। इस तरह  7x7=49, कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।

  

सनातन ज्ञान कितना अद्भुत ज्ञान है,  अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं।


 

Source 

सनातन धर्म ज्ञान

यदि आप भी करना चाहते हैं दान तो ध्यान रखें ये बात



पुराने समय से ही धन और अन्य वस्तुओं का दान करने की परंपरा चली आ रही है। आज भी काफी लोग दान करते हैं। दान से अक्षय पुण्य मिलता है और दुखों से मुक्ति मिलती है। साथ ही, जरूरतमंद लोगों को भी खाना और दूसरी जरूरी चीजें मिल जाती हैं। दान किसे करना चाहिए, इस संबंध में ये बात ध्यान रखें कि जिन लोगों के पर्याप्त धन और सुख-सुविधाएं हैं, उन्हें दान न देकर ऐसे लोगों की मदद करें जिन्हें आवश्यकता हो। यहां जानिए एक सच्चे संत का किस्सा, जिसमें बताया गया है कि किसे दान देना श्रेष्ठ होता है...

अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया



एक दिन पंडित को प्यास लगी, संयोगवश घर में पानी नही था इसलिए उसकी पत्नी पडोस से पानी ले आई,  पानी पीकर पंडित ने पूछा....

पंडित - कहाँ से लायी हो बहुत ठंडा पानी है I

पत्नी - पडोस के कुम्हार के घर से ,
 (पंडित ने यह सुनकर लोटा फैंक दिया और उसके तेवर चढ़ गए वह जोर जोर से चीखने लगा )

पंडित - अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया, कुंभार ( शुद्र ) के घर का पानी पिला दिया। पत्नी भय से थर-थर कांपने लगी, उसने पण्डित से माफ़ी मांग ली
पत्नी - अब ऐसी भूल नही होगी। शाम को पण्डित जब खाना खाने बैठा तो घरमे खानेके लिए कुछ नहीं था.

पंडित - रोटी नहीं बनाई. भाजी
नहीं बनाई.

पत्नी - बनायी तो थी लेकिन अनाज पैदा करनेवाला कुणबी(शुद्र) था. और जिस कढ़ाई में बनाया था वो लोहार (शुद्र) के घर से आई थी। सब फेक दिया.

पण्डित - तू पगली है क्या कही अनाज और कढ़ाई में भी छुत होती है? यह कह कर पण्डित बोला की पानी तो ले आओ I

पत्नी - पानी तो नही है जीI

पण्डित - घड़े कहाँ गए हैI

पत्नी - वो तो मेने फैंक दिए क्योंकि कुम्हार के हाथ से बने थेI पंडित बोला दूध ही ले आओ वही पीलूँगा I
पत्नी - दूध भी फैंक दिया जी क्योंकि गाय को जिस नौकर ने दुहा था वो तो नीची (शुद्र) जाति से था न I

पंडित- हद कर दी तूने तो यह भी नही जानती की दूध में छूत नही लगती है I

पत्नी-यह कैसी छूत है जी जो पानी में तो लगती है, परन्तु दूध में नही लगती। पंडित के मन में आया कि दीवार से सर फोड़ ले। गुर्रा कर बोला - तूने मुझे चौपट कर दिया है जा अब आंगन में खाट डाल दे मुझे अब नींद आ रही है I

पत्नी- खाट! उसे तो मैने तोड़ कर फैंक दिया है क्योंकि उसे शुद्र (सुतार ) जात वाले ने बनाया था.

पंडित चीखा - ओ फुलो का हार लाओ भगवन को चढ़ाऊंगा ताकि तेरी अक्ल ठिकाने आये.

पत्नी- फेक दिया उसे माली(शुद्र) जाती ने बनाया था.

पंडित चीखा- सब में आग लगा दो, घर में कुछ बचा भी हैं या नहीं.
पत्नी - हाँ यह घर बचा है, इसे अभी तोडना बाकी है क्योंकि इसे भी तो पिछड़ी जाति के मजदूरों ने बनाया है I पंडित के पास कोई जबाब नही था .

उसकी अक्ल तो ठिकाने आयी बाकी लोगोकी भी आ जायेगी सिर्फ
इस कहानी आगे फॉरवर्ड करो हो सके देश मे जाती वाद खत्म हो जाये

जानिए मां बगलामुखी की कथा



देवी बगलामुखी जी के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार सतयुग में महाविनाश उत्पन्न करने वाला ब्रह्मांडीय तूफान उत्पन्न हुआ, जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा इससे चारों ओर हाहाकार मच जाता है और अनेकों लोक संकट में पड़ गए और संसार की रक्षा करना असंभव हो गया. यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसे देख कर भगवान विष्णु जी चिंतित हो गए.
इस समस्या का कोई हल न पा कर वह भगवान शिव को स्मरण करने लगे तब भगवान शिव उनसे कहते हैं कि शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अत: आप उनकी शरण में जाएँ, तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा सरोवर के निकट पहुँच कर कठोर तप करते हैं. भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया देवी शक्ति उनकी साधना से प्रसन्न हुई और सौराष्ट्र क्षेत्र की हरिद्रा झील में जलक्रीडा करती महापीत देवी के हृदय से दिव्य तेज उत्पन्न हुआ।
उस समय चतुर्दशी की रात्रि को देवी बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई, त्र्येलोक्य स्तम्भिनी महाविद्या भगवती बगलामुखी नें प्रसन्न हो कर विष्णु जी को इच्छित वर दिया और तब सृष्टि का विनाश रूक सका. देवी बगलामुखी को बीर रति भी कहा जाता है क्योंकि देवी स्वम ब्रह्मास्त्र रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र महारुद्र कहा जाता है इसी लिए देवी सिद्ध विद्या हैं. तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं, गृहस्थों के लिए देवी समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं.
इन बातों का रखें विशेष ध्यान
पंडित "विशाल' दयानंद शास्त्री के अनुसार बगलामुखी आराधना में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना जरूरी होता है। साधना में पीत वस्त्र धारण करना चाहिए एवं पीत वस्त्र का ही आसन लेना चाहिए। आराधना में पूजा की सभी वस्तुएं पीले रंग की होनी चाहिए। आराधना खुले आकश के नीचे नहीं करनी चाहिए।
आराधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । साधना डरपोक किस्म के लोगों को नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक की परीक्षा भी लेती हैं। साधना काल में भयानक अवाजें या आभास हो सकते हैं, इससे घबराना नहीं चाहिए और अपनी साधना जारी रखनी चाहिए।
साधना गुरु की आज्ञा लेकर ही करनी चाहिए और शुरू करने से पहले गुरु का ध्यान और पूजन अवश्य करना चाहिए। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं, इसलिए साधना के पूर्व महामृत्युंजय मंत्र का एक माला जप अवश्य करना चाहिए। साधना उत्तर की ओर मुंह करके करनी चाहिए। मंत्र का जप हल्दी की माला से करना चाहिए। जप के पश्चात् माला अपने गले में धारण करें।
साधना रात्रि में 9 बजे से 12 बजे के बीच प्रारंभ करनी चाहिए। मंत्र के जप की संखया निर्धारित होनी चाहिए और रोज उसी संखया से जप करना चाहिए। यह संखया साधक को स्वयं तय करना चाहिए।
साधना गुप्त रूप से होनी चाहिए। साधना काल में दीप अवश्य जलाया जाना चाहिए। जो जातक इस बगलामुखी साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अजेय हो जाता है, उसके शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते।
SOURCE - naidunia.jagran

धर्म के नाम पर पापा ये कैसे.........

एक गिद्ध का बच्चा अपने बाप से बोला "पापा आज मुझे इनसान का गोशत खाना हैं । गि द्ध बोला " ठीक हैं बेटा शाम को ला दुगा। गिद्ध उडा ओर एक सुअर का गोशत ले कर आया। 

गिद्ध का बच्चा बोला "पापा ये तो सुअर का गोशत है , मुझे तो इनसान का गोशत खाना हैं । गिद्ध बोला " रूक शाम तक मिल जाऐगा । गिद्ध फिर उडा ओर एक मरी गाय का गोशत ले कर आया । गिद्ध का बच्चा बोला "पापा ये तो गाय का गोशत है , मुझे तो इनसान का गोशत खाना हैं । गिद्ध उडा ओर उसने सुअर का गोशत एक मस्जिद के आसपास और गाय का गोशत मंदिर के पास फेक दिया। थोडी देर के बाद वहाँ ढेर सारी इनसानो की लाशे बिछ गई । 

ओउम के विस्तरित व्याख्या


अनंत ध्यान: सीखें ध्यान की एक शक्तिशाली प्रक्रिया - सद्गुरु से






Ramayan - All Episode at One Place

ENTERTAINMENT TADKA: Ramayan - All Episode at One Place


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Prediction (भविष्यवाणी) of Corona by 14 Years Astrologer Abhigya Anand From Nov 2019





ॐ मंत्र का आप कहीं गलत उच्चारण तो नहीं करते? - Sadhguru





आत्मा को अमर क्यों माना जाता है?

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार आत्मा ईश्वर का अंश है। इसलिए यह ईश्वर की ही तरह अजर और अमर है। संस्कारों के कारण इस दुनिया में उसका अस्तित्व भी है। वह जब जिस शरीर में प्रवेश करती है, तो उसे उसी स्त्री या पुरुष के नाम से जाना जाता है।आत्मा का न कोई रंग होता है न रूप, इसका कोई लिंग भी नहीं होता।
ऋगवेद में बताया गया है1/164/38
जीवात्मा अमर है और शरीर प्रत्यक्ष नाशवान। यह पूरी शारीरिक क्रियाओं का अधिष्ठाता है, क्योंकि जब तक शरीर में प्राण रहता है, तब तक यह क्रियाशील रहता है। इस आत्मा के संबंध में बड़े-बड़े मेधावी पुरुष भी नहीं जानते। इसे ही जानना मानव जीवन का परम लक्ष्य है
बृहदारण्यक 8/7/1उपनिषद में लिखा है
आत्मा वह है जो पाप से मुक्त है, वृद्धावस्था से रहित है, मौत और शोक से रहित है, भूख और प्यास से रहित है, जो किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती, इसलिए उसे इच्छा करनी चाहिए, किसी वस्तु की कल्पना नहीं करती, उसे कल्पना करना चाहिए। यह वह सत्ता है जिसको समझने के लिए कोशिश करना चाहिए। श्रीमद्भागवद्गीता में आत्मा की अमरता के विषय पर विस्तृत व्याख्या की गई है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता व न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोअयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न मरती ही है न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोअपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होती है। शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति के लिए 13 दिनों का समय लगता है। इसलिए इस दौरान आत्मा की शांति के लिए, पूजा- पाठ, दान-दक्षिणा आदि अनुष्ठान किए जाते हैं। इसके बाद आत्मा पितृ लोक को प्राप्त हो जाती है। आत्मा की अमरता का यही दृढ़ विश्वास है।
SOURCE - BHASKER

कोई भी काम करें उसे अपना कर्तव्य समझकर ही करें

बहुत समय पहले की बात है एक राजा था। उसे राजा बने लगभग दस साल हो चुके थे। पहले कुछ साल तो उसे राज्य संभालने में कोई परेशानी नहीं आई। फिर एक बार अकाल पड़ा। उस साल लगान न के बराबर आया। राजा को यही चिंता लगी रहती कि खर्चा कैसे घटाया जाए ताकि काम चल सके। उसके बाद यही आशंका रहने लगी कि कहीं इस बार भी अकाल न पड़ जाए। उसे पड़ोसी राजाओं का भी डर रहने लगा कि कहीं हमला न कर दें।

एक बार उसने कुछ मंत्रियों को उसके खिलाफ षडयंत्र रचते भी पकड़ा था। राजा को चिंता के कारण नींद नहीं आती। भूख भी कम लगती। शाही मेज पर सैकड़ों पकवान परोसे जाते, पर वह दो-तीन कौर से अधिक न खा पाता। राजा अपने शाही बाग के माली को देखता था। जो बड़े स्वाद से प्याज व चटनी के साथ सात-आठ मोटी-मोटी रोटियां खा जाता था।

रात को लेटते ही गहरी नींद सो जाता था। सुबह कई बार जगाने पर ही उठता। राजा को उससे जलन होती। एक दिन दरबार में राजा के गुरु आए। राजा ने अपनी सारी समस्या अपने गुरु के सामने रख दी। गुरु बोले वत्स यह सब राज-पाट की चिंता के कारण है इसे छोड़ दो या अपने बेटे को सौंप दो तुम्हारी नींद और भूख दोनों वापस आ जाएंगी।

राजा ने कहा नहीं गुरुदेव वह तो पांच साल का अबोध बालक है। इस पर गुरु ने कहा ठीक है फिर इस चिंता को मुझे सौंप दो। राजा को गुरु का सुझाव ठीक लगा। उसने उसी समय अपना राज्य गुरु को सौंप दिया। गुरु ने पूछा अब तुम क्या करोगे। राजा ने कहा कि मैं व्यापार करूंगा। गुरु ने कहा राजा अब यह राजकोष तो मेरा है। तुम व्यापार के लिए धन कहां से लाओगे। राजा ने सोचा और कहा तो मैं नौकरी कर लूंगा।

इस पर गुरु ने कहा यदि तुमको नौकरी ही करनी है तो मेरे यहां नौकरी कर लो। मैं तो ठहरा साधूु मैंं आश्रम में ही रहूंगा, लेकिन इस राज्य को चलाने के लिए मुझे एक नौकर चाहिए। तुम पहले की तरह ही महल में रहोगे। गद्दी पर बैठोगे और शासन चलाओगे, यही तुम्हारी नौकरी होगी। राजा ने स्वीकार कर लिया और वह अपने काम को नौकरी की तरह करने लगा। फर्क कुछ नहीं था काम वही था, लेकिन अब वह जिम्मेदारियों और चिंता से लदा नहीं था।

कुछ महीनों बाद उसके गुरु आए। उन्होंने राजा से पूछा कहो तुम्हारी भूख और नींद का क्या हाल है। राजा ने कहा- मालिक अब खूब भूख लगती है और आराम से सोता हूं। गुरु ने समझाया देखें सब पहले जैसेा ही है, लेकिन पहले तुमने जिस काम को बोझ की गठरी समझ रखा था। अब सिर्फ उसे अपना कर्तव्य समझ कर रहे हो। हमें अपना जीवन कर्तव्य करने के लिए मिला है। किसी चीज को जागीर समझकर अपने ऊपर बोझ लादने के लिए नही।

सीख: 1. काम कोई भी हो चिंता उसे और ज्यादा कठिन बना देती है।
2. जो भी काम करें उसे अपना कर्तव्य समझकर ही करें। ये नहीं भूलना चाहिए कि हम न कुछ लेकर आए थे और न कुछ लेकर जाएंगे।

उन्होंने माला छोड़ दी

एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी । उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया।

वही थोड़ी दूर एक साधु हाथ में माला लेकर मनके गिन गिन कर माल फेरते थे। तभी उनकी नजर ग्वालन पर पड़ी, उन्होंने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा । उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम करती है इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया ।

यह बात साधु के दिल को छू गयी और उन्होंने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है तो उसका हिसाब नही रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हुँ, उनके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हुँ। मुझसे तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उन्होंने माला छोड़ दी।


जीवन भी ऐसा ही है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता, और जहाँ हिसाब किताब होता है वहाँ प्रेम नही होता सिर्फ व्यापार होता है।

हे ईश्वर!! दौड तो हम लेंगे, बस आप हमें गिरने मत देना

*ईश्वर और विश्वास - कहानी*

एक पंडित जी समुद्री जहाज से यात्रा कर रहे थे, रास्ते में एक रात तुफान आने से जहाज को एक द्वीप के पास लंगर डालना पडा। सुबह पता चला कि रात आये तुफान में जहाज में कुछ खराबी आ गयी है, जहाज को एक दो दिन वहीं रोक कर
उसकी मरम्मत करनी पडेगी।
पंडित जी  नें सोचा क्यों ना एक छोटी बोट से द्वीप पर चल कर घूमा जाये, अगर कोई मिल जाये तो उस तक प्रभु का संदेश पहँचाया जाय और उसे
प्रभु का मार्ग बता कर प्रभु से मिलाया जाये।

तो वह जहाज के कैप्टन से इज़ाज़त ले कर एक छोटी बोट से द्विप पर गये, वहाँ इधर उधर घूमते हुवे तीन द्वीपवासियों से मिले। जो बरसों से उस सूने
द्विप पर रहते थे। पंडित जी उनके पास जा कर बातचीत करने लगा।

उन्होंने उनसे ईश्वर और उनकी आराधना पर चर्चा की । उन्होंने उनसे पूछा- “क्या आप ईश्वर को मानते हैं ?”

वे सब बोले- “हाँ..।“

फिर उन्होंने  ने पूछा- “आप ईश्वर की आराधना कैसे करते हैं ?"

उन्होंने बताया- ''हम अपने दोनो हाथ ऊपर करके कहते हैं "हे ईश्वर हम आपके हैं, आपको याद करते हैं, आप भी हमें याद रखना ''

पंडित जी  ने कहा- "यह प्रार्थना तो ठीक नही है।"

एक ने कहा- "तो आप हमें सही प्रार्थना सिखा दीजिये।"
उन्होंने ने उन सबों को धार्मिक पुस्तके पढना और प्रार्थना करना सिखाया। तब तक जहाज बन गया। पंडित जी अपने सफर पर आगे बढ गये।

तीन दिन बाद पंडित जी ने जहाज के डेक पर टहलते हुवे देखा, वह तीनो द्वीपवासी जहाज के पीछे-पीछे पानी पर दौडते हुवे आ रहे हैं। उन्होने हैरान होकर जहाज रुकवाया, और उन्हे ऊपर चढवाया।

फिर उनसे इस तरह आने का कारण पूछा- “वे बोले - ''!! आपने हमें जो प्रार्थना सिखाई थी, हम उसे अगले दिन ही भूल गये। इसलिये आपके पास उसे दुबारा सीखने आये हैं, हमारी मदद कीजिये।"

उन्होंने कहा- " ठीक है, पर यह तो बताओ तुम लोग पानी पर कैसे दौड सके?"

उसने कहा- " हम आपके पास जल्दी पहुँचना चाहते थे, सो हमने ईश्वर से विनती करके मदद माँगी और कहा - "हे ईश्वर!! दौड तो हम लेगें बस आप हमें गिरने मत देना ! और बस दौड पडे।“

अबपंडित जी सोच में पड गये.. उन्होने कहा- " आप लोग और ईश्वर पर आपका विश्वास धन्य है। आपको अन्य किसी प्रार्थना की आवश्यकता नहीं है। आप पहले कि तरह प्रार्थना करते रहें।"

ये कहानी बताती है कि ईश्वर पर विश्वास, ईश्वर की आराधना प्रणाली से अधिक महत्वपूर्ण है॥

संत कबीरदास ने कहा है -
“माला फेरत जुग गया, फिरा ना मन का फेर, कर का मन का डारि दे, मनका-मनका फेर॥“


ग्रंथों के अनुसार पत्नी में होने चाहिए ये खास गुण

हिंदू धर्म में पत्नी को पति की अद्धांगिनी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पत्नी पति के शरीर का आधा अंग होती है। महाभारत में भीष्म पितामह ने कहा है कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिए क्योंकि उसी से वंश की वृद्धि होती है। इसके अलावा भी अनेक ग्रंथों में पत्नी के गुण व अवगुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। गरुड़ पुराण में भी पत्नी के कुछ गुणों के बारे में बताया गया है। इसके अनुसार जिस व्यक्ति की पत्नी में ये गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र यानी भाग्यशाली समझना चाहिए। ये गुण इस प्रकार हैं-

 

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।। (108/18)

अर्थात- जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है।

गृह कार्य में दक्ष यानी घर संभालने वाली 

गृह कार्य यानी घर के काम, जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आए अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में ही गृहस्थी चलाना आदि कार्यों में निपुण होती है, उसे ही गृह कार्य में दक्ष माना जाता है। ये गुण जिस पत्नी में होते हैं, वह अपने पति की प्रिय होती है।

 मीठा बोलने वाली

पत्नी को अपने पति से सदैव संयमित भाषा में ही बात करना चाहिए। संयमित भाषा यानी धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक। पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है व उसके इच्छाएं पूरी करने की कोशिश करता है। पति के अलावा पत्नी को घर के अन्य सदस्यों जैसे- सास-ससुर, देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी, ननद आदि से भी प्रेमपूर्वक ही बात करनी चाहिए। बोलने के सही तरीके से ही पत्नी अपने पति व परिवार के अन्य सदस्यों के मन में अपने प्रति स्नेह पैदा कर सकती है।  

पति की हर बात मानने वाली

जो पत्नी अपने पति को ही सर्वस्व मानती है तथा सदैव उसी के आदेश का पालन करती है, उसे ही धर्म ग्रंथों में पतिव्रता कहा गया है। पतिव्रता पत्नी सदैव अपने पति की सेवा में लगी रहती है, भूल कर भी कभी पति का दिल दुखाने वाली बात नहीं कहती। यदि पति को कोई दुख की बात बतानी हो तो भी वह पूर्ण संयमित होकर कहती है। हर प्रकार के पति को प्रसन्न रखने का प्रयास करती है। पति के अलावा वह कभी भी किसी अन्य पुरुष के बारे में नहीं सोचती। धर्मग्रंथों में ऐसी ही पत्नी को पतिपरायणा कहा गया है।

धर्म का पालन करने वाली 

एक पत्नी का सबसे पहले यही धर्म होता है कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे व ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो। गरुड़ पुराण के अनुसार, जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती-संवरती है, कम खाती है, कम बोलती है तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है। जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है तथा अपने पति का प्रिय करती है, उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहिए। जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहिए।

Source - bhasker


Know About - कन्यादान का वास्तविक अर्थ

*कन्यादान का वास्तविक अर्थ -:*

कन्यादान शब्द पर समाज में गलतफहमी पैदा हो गई है, अकारण भ्रांतियां उत्पन्न की गयी हैं,

" समाज को यह समझने की जरूरत है कि कन्यादान का मतलब संपत्ति दान नही होता और न ही " लड़की " का दान," " कन्यादान " का मतलब " गोत्र दान " होता है.  कन्या " पिता " का गोत्र छोड़कर " वर " के गोत्र में प्रवेश करती है, पिता कन्या को अपने गोत्र से विदा करता है और उस  गोत्र को अग्नि देव को दान कर देता है,  वर अग्नि देव को साक्षी मानकर कन्या को अपना गोत्र प्रदान करता है और अपने गोत्र में स्वीकार करता है, इसे ही *कन्यादान* कहते हैं

ध्यान, ध्यान के विधि , ध्यान के लाभ एवं अनुभव



 ध्यान - अष्टांग योग का सातवां अंग हैं, शरीरस्थ मन को एक स्थान पर स्थिर कर ईश्वर के दर्शन हेतु निरंतर प्रयास करना, चिंतन करना तथा अन्य विषय विचारों से अलग रखना ध्यान कहलाता है। ध्यानावस्था में ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में प्राप्त हो जाता है।

ध्यान से मानस्रिक स्रुख व शांति का अनुभव प्राप्त होकर सत्य असत्य, विवेक, नम्रता आदि का भाव जाग्रत होने लगता हैं।


ध्यान केसे करें?

"बाह्य तैयारी"
ध्यान के अनुरूप शांत, एकांत, स्वच्छ स्थान का चुनाव सर्वाधिक उत्तम रहता हैं। समय की निश्चिता को बनाये रखे| वस्त्र सुविधानुसार आरामदेह शीतल हो। आस्रन शारीरिक ऊर्जा को भूमि से अवरोधित करने वाला हो। निद्रा, विश्राम, शौच, स्नान आदि से निवृति पश्चात ही ध्यान करना सर्वोत्तम होता है|

"आंतरिक तैयारी"

ध्यान करने हेतु योगाभ्यासी को निम्नलिखित ४ बिंदुओं पर का अनुशरण नितांत आवश्यक है|

१. प्रत्येक कार्य ईश्वर को साक्षी मानकर पुण्य प्राप्त करने हेतु करें

२. ध्यान का समय नजदीक आने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण कर लेवें जिससे कोई विचार बाधा न बनें।

३. स्राधक निम्न संकल्प लेवें-
  •  मैं शरीर नही आत्मा हूँ।
  •  मेरा कोई सगा संबंधी नही है।
  •  अपने को 'मैं और मेरा' का त्याग की भावना को दूर रखें।
  •  ईश्वर सर्वव्यापक है और आत्मा एकदेशीया
  •  ईश्वर-प्राणिधान करते हुए ध्यान करना।
" प्रक्रिया"
  • आत्मोन्नति, आत्मोत्कर्ष, आत्मकल्याण, आत्मतृप्ति, आत्मसंतोष, आत्मनिर्भयता, आत्मस्वातंत्रय, आत्मानन्द, मोक्षानन्द, परमानन्द को प्राप्त करने का साधन ध्यान हैं।
  • स्थिर होकर सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन पर बैठें।
  • मेरुदंड को सीधा रखें। संपूर्ण शरीर को ढीला छोड़ देवें। दोनों हाथ ज्ञानमुद्रा में करें। मन को विचार शून्य बना लेवें। अब धीरे धीरे आँखे बंद करें।
  • अब शरीर के किसी एक प्रदेश में धारणा कर मन को स्थापित करें तथा संपूर्ण आत्मीक ऊर्जा को वहां स्थापित करें। विचक्र कीजिये मेर मन स्थिर है, मेरी आत्मा को अनुभव कर रहा है। संकल्प कीजिये की ईश्वर के अलावा मेरा कोई नही अब वही मेरा सब कुछ है।
  • अब गायत्रीमंत्र अर्थ सहित हृदय में जप कीजिये। अंत में अपनी गलतियों का पश्चाताप करें पुनरापि दोहराने से अलग हो। तथा प्रार्थना कीजिये हे प्रभु आप ही मेरे सर्वाधार है, मेरे परमानन्द के आधार हैं। ये जगत आप से ही चलायमान हैं , मेरा कल्याण करें।
ऐसी प्रार्थना करते जाइये जब तक हो सके नित्य प्रतिदिन ऐसा ही करें। ईष्वर ने चाहा तो अवस्य आपको ध्यान का आनंद प्राप्त होग

"ध्यान के लाभ"

ध्यान के अनेक दैवीय लाभ हैं-
1 .ध्यान से उच्च एकाग्रता प्राप्त होती है।
2. जिकन व विवेक का वृद्धि होती है।
3. सत्य-असत्य का बोध होता है।
4. बोद्धिक मानस्रिक शक्ति का विकास होता है
5.प्रभु दर्शन का मार्ग प्राप्त होता है।
6. काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि से रहित होता है।
7. स्वस्थ शरीर की प्राप्ति होती है।
8. तनाव, अवसाद से मुक्ति प्राप्त होती है।
ध्यान मनुष्य का सर्वोत्कृष्ट कार्य है|

"ध्यान के अनुभव"
  • ध्यान में साधक को आनंद की असीम अनुभुति के साथ साथ सत्यासत्य का अनुभव प्राप्त होता है। साथ ही शारीरिक मानसिक आत्मीक उन्नति होती है।
  • निरंतर प्रयास से व्यक्ति समाधी के निकट पहुँच जाता है व स्वयं को हल्का , प्रसन्न, स्वस्थ, निरोगी अनुभव करता है।
  • सिद्धियों को प्राप्त करने योग्य बनकर स्वयं में निरंतर परिवर्तन अनुभव करता है।
Source - ध्यानावस्था के अनुभव
लेखक: योगी सेवानगन्द स्रावनार्य

शनि के दोष एवं दूर करने के उपाय

 

 

सनातन धर्म के अनुसार शनि को सूर्य का पुत्र व एक देवता माना गया एवं  शनिवार का दिन को  शनि देव को समर्पित किया गया  है. शनिदेव को कर्मफल दाता कहा गया है और  ज्योतिष में शनिदेव को न्याय का देवता माना गया है। यदि किसी ने अनाचार, दुराचार या कोई गलत कार्य नहीं किया है एवं  जो लोग परोपकारी होते हैं, शनि की कृपा से उनके जीवन से हर कष्ट का अंत हो जाता है. साढ़े साती की दशा आने पर भी ऐसे व्यक्ति को शनिदेव  दंड न देकर उस पर अपना आशीर्वाद बरसाते हैं। परन्तु  वहीं न्याय के देवता होने के चलते  वे किसी भी प्रकार से किए गए बुरे कर्म का दंड देते हैं, किसी भी स्थिति में वे किसी को क्षमा नहीं करते, ऐसे में उनके दंड जो परिणाम सामने आते हैं, उसी कारण इन्हें क्रूर माना जाता है। यदि आपने गलती की है, तो शनिदेव आपने न्याय के मामलों में रहम नहीं करते हैं और इसका दंड अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसीलिए जिस व्यक्ति पर शनि देव की महादशा का प्रकोप होता है,उसका जीवन नर्क के समान पीड़ादायक हो जाता है, चारों ओर परेशानियों का पहाड़ खड़ा दिखाई देता है. शनि दोष का प्रभाव इतना बुरा होता है कि आसमान पर बैठा व्यक्ति जमीन पर आ जाता है। लेकिन असल में  देखा जाये  तो यह लोगो को केवल उनके बुरे कर्मों के लिए ही दण्डित करते हैं और अच्छे कर्म  होने पर जातक को आसमान की बुलंदियों पर भी पहुंचा देते हैं।  वह उसे रंक से राज बना देते  है। शनि तीनों लोकों का न्यायाधीश है। अतः यह व्यक्तियों को उनके कर्म के आधार पर फल प्रदान करते  है।

 

शनि देव को प्रसन्न करने के लिए अनेकों तरह के उपाय बताए गए हैं. परन्तु शनिदेव कर्मफल दाता एवं न्याय के देवता  है, इसलिए मुख्यतः अपने कर्मो एवं व्यवहारों को सुधार कर शनिदेव को प्रसन्न किया जा सकता है.

आइये जानें शनिदेव को प्रसन्न करने के उपाय.

 

1.       कर्मो द्वारा  उपाय


· कोई भी अनुचित कार्य न करें, बुरी चीजों से दूर रहें। चूकिं शनि को न्याय का देवता है, अत: यदि आप किसी प्रकार के बुरे कर्मों में शामिल नहीं होते हैं, तो माना जाता है कि शनि अपनी दशा आने पर भी ऐसे लोगों पर न्याय के अनुसार दया बरसाते हैं, न कि कोई दंड देते हैं।


· अपनी गलतियों के लिए शनिदेव से माफ़ी मांगे एवं गलतियों को सुधारने का प्रण करे।

· श‍राब का सेवन भूल कर भी न करे .
· कभी भी झूठ व बुराई का साथ नहीं दे एवं हमेशा सच्चाई एवं ईमानदारी के रास्ते पर चले ।
· बुजुर्गों का एवं सेवा करें ।
· घर –परिवार में बड़े बुजुर्गों एवं स्त्रियों का सम्मान करें।
· अहंकार घमंड न करें एवं सबके साथ विनम्र रहें।
· अपने सभी सबंधो के प्रति इमानदार एवंवफादार रहें.
· धोखा किसी के साथ न करे।

2. अन्य उपाय

· प्रत्येक शनिवार को शनि मंदिर में जाएं एवं शनि देव की उपासना करें, ॐ शं शनैश्चराय नमः, यह शनि का मूल मंत्र है इसका जाप जरूर करें और उनकी कृपा के लिए प्रार्थना करें।
· शनिवार के दिन राई, तेल, उड़द, काला कपड़ा, जूते आदि का दान करना चाहिए।
· लोहे की चीजें शनिवार को न खरीदें।
· शनिवार के दिन कटोरी में सरसों का तेल डालकर उसमें अपना चेहरा देखें और उस तेल को दान करें।
· शनिवार के दिन शाम को सूर्यास्त के बाद हनुमान मंदिर में हनुमान जी की अराधना करें व हनुमान चालीसा का पाठ करें एवं उन्हें सिंदूर अर्पित करें और काली तिल्ली के तेल से दीपक जलाएं.
· शनिवार के दिन शाम को सूर्यास्त के पूर्व पीपल या बरगद को जल दें एवं पेड़ के नीचे सरसों के तेल का दीपक जलाए.
· शनि यंत्र की स्थापना करें. हर रोज इसके सामने सरसों के तेल का दीपक जलाकर शनि यंत्र की विधि-विधान से पूजा करें.
· शहद का सेवन करें, शहद में काले तिल मिलाकर मंदिर में दान करें या शहद को घर में हमेशा रखें।
· शनिवार की शाम को किसी दरिद्र को भरपेट भोजन कराएं. साथ ही उसको कुछ धन एवं काले वस्तुओं का दान करें.
· शनिवार के दिन काले कुत्तों को रोटी खिलाएं
· हमेशा सिर ढक कर ही मंदिर जाएं।
· घर में शमी का वृक्ष लगाएं. यदि यह वृक्ष शनिवार के दिन लगाया जाय तो अति उत्तम होगा.
· शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए शनि यंत्र की स्थापना करें. हर रोज इसके सामने सरसों के तेल का दीपक जलाकर शनि यंत्र की विधि-विधान से पूजा करें.
· यदि कोई जानकार नीलम धारण करने की सलाह भी दे तो भी उनसे पूरी विधि के साथ ही धारण करने का समय, दिन व किन मंत्रों के साथ धारण करनी है, ये पूरी तरह से समझ कर ही इसे पहनें। सावधानी  - रत्न नीलम को कभी भी किसी जानकार के कहे बिना धारण न करें,

 

 

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पूजा में प्रयोग होने वाले कुछ शब्द और उनका अर्थ?



1. पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।


2. पंचामृत – दूध , दही , घृत , मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।


3. पंचगव्य – गाय के दूध , घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।


4. षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र, अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।


5. दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।


6. त्रिधातु – सोना , चांदी, तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं।


7. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा, तांबा और जस्ता।


8. अष्टधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा , कांसा और पारा।


9. नैवैध्य – खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुयें।


10. नवग्रह – सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध, गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।


11. नवरत्न – माणिक्य , मोती , मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य|


12. अष्टगंध [ देवपूजन हेतु ] – अगर , तगर , गोरोचन, केसर , कस्तूरी , ,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर 


अष्टगंध [ देवी पूजन हेतु ]- अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम ,गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर 


13. गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।


14. पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़।


15. दशांश – दसवां भाग 


16. सम्पुट – मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।


17. भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल | मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए , जो कटा-फटा न हो।


18. मन्त्र धारण – किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए।


19. ताबीज – यह तांबे के बने हुए

बाजार में बहुतायत से मिलते हैं | ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं | सोना , चांदी , त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज बनवाये जा सकते हैं।


20. मुद्राएँ – हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्थिति में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है | मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।


21. स्नान – यह दो प्रकार का होता है | बाह्य तथा आतंरिक ,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।


22. तर्पण – नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है | जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।


23. आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।


24. करन्यास – अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।


25. हृद्याविन्यास – ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।


26. अंगन्यास – ह्रदय , शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।


27. अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है |घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं | अर्घ्य पात्र में दूध , तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।


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